Sunday 31 August, 2014

स्कै बाबा की कहानी - उर्स

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उर्स


स्कै बाबा
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दौड़-दौड़ कर इमलीबन बस स्टैंड पहुँचा। नलगोंडा के लिए टिकट लेकर बस में बैठ गया। बस के साथ-साथ
मेरे मन मेंभी कई विचार चलने लगे...अभी मुझे काफ़ी देर हो गयी है... मेरी छोटी बहनें मुझ पर चिल्लाएंगी। 
‘ज़ोर दे कर कहा था कि हम ८ बजे तक टीले के पास आकर इंतेज़ार करें और ख़ुद इतनी देर से आ रहे हो’ 
कहकर मुझ पर बरस पड़ेंगी...। नलगोंड़ा को जाने की बात हो या नलगोंड़ा का ख़्याल आए... सबसे पहले वह 
दो पहाड़ी टीले ही याद आते हैं। सारा टाउन उन दो पहाडी टीलों की गोद में बसा हुआ है जो देखने में बहुत सुंदर 
लगते हैं। उसमें एक टीला लतीफ़ शाह वली का पहाड़ है अर्थात लतीफ़ साहब का टीला। उस टीले पर लतीफ़ 
शाह वली की दरगाह है। इसी कारण उसका यह नाम पड़ गया है।
बहुत ऊँचा टीला है। हर साल वहाँ उर्स लगता है। उस समय टीले के आगे बाज़ार लगता है... मेले में बहुत ही शोर-शराबा,
हल्ला-गुल्ला मचा रहता है। यह बच्चों के लिए त्योहार जैसा है तो बड़ों के लिए उर्स में लतीफ़ साहब की ज़ियारत के
लिए आना... टीले पर चढ़ना एक रिवाज सा बन गया है....यह उनके लिए एक तरह की रिलीफ़ है...
उर्स के नाम से ही सुंदर रुख़साना की याद आती है... उसकी याद आते ही आँखों में उसका रूप आँसुओं के साथ छलक
जाता है। पता नहीं एक अजीब सी ग़लती का एहसास जान ले लेता है।
बस दिलसुख नगर के बस स्टैंड पर रुक कर फिर से निकल पड़ी....
बचपन में उर्स का कितना इंतेज़ार करते थे...उर्स के दिनों के क़रीब आने की बात सोचते ही मन को पंख लग जाते थे
 और वह उड़ने लगता था। दो तीन दिन पहले सुबह के वक़्त हमारे गाँव से चूने से पुती हुई टीले की सीढ़ियाँ ऐसी लगती
 जैसे बादलों के बीच एक रास्ता बना हो। रात के समय सीढ़ियों पर लगायी हुई लाइटें फूलों से गुथी हुई चोटी की तरह
दिखायी देती थीं। हम लोग इंतज़ार करते थे कि कब-कब जुमा (शुक्रवार) आएगा और कब-कब हम लोग सब के साथ
मिलकर रंग बिरंगी पतंगों की तरह उड़ेंगे।
गुरुवार के दिन सुबह होते ही सभी लोग तैयार होकर टीले के पास जमा हो गए। उस दिन संदल(चंदन)था। संदल के दिन
लतीफ़ साहब को संदल, सहरा वग़ैरा चढ़ाते हैं। टीले के आगे लोग खचाखच भरे हुए थे। बड़े-बूढ़े, महिलाएँ सभी टीले के
दामन में बैठे थे। पुरुष बच्चों को मेले में कुछ दिलाने के लिए ले जाते थे। थोड़े बड़े बच्चे अपना साहस दिखाते हुए दोस्तों
के साथ दरगाह के आसपास की सारी गलियाँ घूमते रहते थे। कितनी क़िस्म की गुड़ियाँ, कितनी चमक-दमक…! खिलोने,
गुड़ियाँ की उम्र को छोड़कर थोड़ा सा आगे बढ़ें तो... चश्मे, बेल्ट, टोपियाँ, तरह-तरह के सजने-धजने के सामान... लड़कियों
के लिए तो कितना कुछ सामान था वहाँ... छोटे बच्चों के बाद लड़कियों का सामान ही ज़्यादा होता था....उफ्फ़ोह... झुमके,
नाक के दाने, तरह-तरह की चेनें, अंगूठियाँ, अर्श, काजल, सुरमे की डिबियाँ, चूड़ियाँ, चप्पल,बुरके, कपड़े...
असल में वह एक रंग बिरंगी दुनिया थी, उन रंगों में हर कोई ख़ुद भी एक रंग की तरह मिल जाता था। उन रंग बिरंगे गुबारों
 में हम भी अकल्पनीय रंगों में उड़ने लगते थे।
जान नगर एरिया से संदल जुलूस साथ आता था। संदल का समय जैसे-जैसे पास आता टीले के आगे लोग खचाखच भर
जाते। टीले के ऊपर जाने वाले रास्ते के दोनों ओर रस्सी को पकड़े हुए पुलिस वाले होते हैं। ऊपर तक पहुँचने के लिए रास्ते
में लोग एक दूसरे को ढकेलते रहते हैं। आगे सभी पुरुष अधिकतर सफ़ेद कपड़े पहने हुए रहते हैं। उसके बाद की सभी लाइनें
 महिलाओं की होती हैं जो काले बुरक़ों में रहती हैं,... सभी बच्चे माता-पिता के हाथों में रहते हैं... जैसे ही संदल का जुलूस
 पहली कमान को पार करता है वैसे ही लोग समुद्र की लहर की तरह हिलने लगते हैं। पहली सीढ़ी से ही संदल का आगे
जाना बहुत मुश्किल हो जाता है। हर कोई संदल को छूकर अपने हाथों को आँखों से लगाने के लिए तड़पता रहता है। बच्चों
 के माथे को छुआने के लिए भी एक दूसरे को धकेलते रहते हैं... उफ़... इन सभी दृश्यों को प्रत्यक्षतः देखने पर ही मज़ा
आता है...
बस हयातनगर बस स्टांड़ पर रुकी है। एक दो लोग जिन्होंने टिकट नहीं लिया था। टिकट लेने के लिए नीचे उतर रहे थे।
ड्राइवर से कहकर थोड़ी देर के लिए मैं भी सड़क पर जाकर एक चाय पिया और फिर से आकर बैठ गया। बस चलने लगी।
उर्स के नाम से ही मेरे मन में काले बुरके घूमने लगते हैं। शायद इसका कारण जवानी के शुरु-शुरु के दिनों में उस
बुरके वाली के पीछे पड़ना ही है।
वह मेरी डिग्री का दूसरा साल था। उस समय आए उर्स में ही सामने आयी थी वह दो आँखें... गोल चंद्रमा की तरह थी वह
आँखें, चारों ओर काले बादलों से घिरी वह बड़ी-बड़ी आँखें.., ख़ूबसूरत आँखें, गोरे रंग के शरीर पर काजल के बीच सफ़ेद
आँखें, बीच में काली पुतलियाँ, मुझे कितना आकर्षित की थीं। उसके पीछे मैं पड़ा था या वह मेरे पीछे पड़ी थी पता नहीं।
लेकिन एक दूसरे के जाने बिना बार-बार एक दूसरे के सामने आते रहे। जब भी आमने सामने आती परिचितों की तरह
बड़े प्यार से एक दूसरे को निहारती रही हमारी दो जोड़ आँखें।
बस वही शुरुआत थी... उस उर्स के हफ़ता-दस दिन चलने तक... हर रोज़ बराबर टीले के पास जाना, साइकिल को बाज़ु
रखकर उस मेले के बाज़ार की दुकानों के बीच फिरना... कुछ ख़रीदना-वरीदना नहीं होता था फिर भी कुछ ख़रीदे जैसा
ढूँढते फिरना.... उस मधुर आँखों की मधुरता को पीने के लिए, उस मधुर मुस्कान में झूमने के लिए ऐसा करता था।
उस दिन सभी शाप उठा दिए जा रहे थे बड़ी मुश्किल से हिम्मत करके मैंने पूछ ही लिया –‘क्या नाम है?’
उसने कहा –‘रुख़साना’। उसने मेरा नाम पूछा। मैंने बताया ‘यूसुफ़’
क्या पढ़ रही हो पूछने पर उसने कहा कि वह ‘इंटरसेकेंडइयर में है’
उसके साथ की सहेलियाँ जोक मारकर खिलखिला कर हंसने लगीं। कौन से कालेज कहकर दूसरी जानकारी लेना चाहा।
आख़िर में ‘थोड़ा सा नक़ाब हटा सकती हो न... चेहरा देखना चाहता हूँ।’ कहकर इल्तिजा की...‘कल मिलेंगे’ कहकर चली
गयी वह।
मैं सोचने लगा कि मेरा दिल ही इतनी ज़ोर से धड़क रहा है तो उस लड़की का दिल कितनी ज़ोर से धड़क रहा होगा।
उस दिन रात को मुझे नींद ही नहीं आयी। कब उजाला होगा... कब सुबह होगी... सोचते हुए मैं बहुत बेचैन था।
उस दिन मेरी ज़बर्दस्ती से वह अपनी एक सहेली को मनाकर उसको अपने साथ लेकर मुझसे मिलने के लिए आयी थी।
वह लोग कुछ दुकानों को पार कर थो़ड़ा सा टीले के ऊपर सीढ़ियों के बाज़ु पत्थरों की आड में आकर बैठे थे... उनके
पीछे-पीछे मैं भी पैदल जाकर उनके पास बैठ गया।
मैं ने कहा- ‘अब तो नक़ाब निकाल दो न।’
रुख़्साना ने गांठ खोलकर नक़ाब निकाला। उसका चेहरा चौधवीं के चाँद की तरह चमक रहा था। मेरा मन अपने आपमें
‘वाह!’ कहे बिना नहीं रह सका।
‘कैसी हूँ?’ उसने हंसते हुए पूछा।
‘आसमां का चाँद ग़ायब होकर जमीन पर उतर आया है।’ चाँदनी मुस्कान फिर से खिल उठी। उस तरह आधे घंटे तक हम
दिल की धड़कनों की रफ़तार को, उसकी तेज़ी को नापते हुए बात करते रहे।
उस दिन से शुरु हो गया... हम रोज़ कहीं न कहीं मिलते थे। जिस दिन नहीं मिलते उस दिन दोनों बहुत बेचैन रहते, मिलने
 तक मुझे और उसको सुकून नहीं मिलता था... इस तरह उस साल के आख़िर में ही रुख़साना ने कहा कि इंटर के बाद
उसकी पढ़ाई बंद करवा दे रहे हैं, यह बात कहते हुए वह हिचकियाँ लेले कर रोने लगी। क्या करूँ कुछ समझ नहीं पाया।
हिम्मत देने के लिए मेरे पास कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा था। मेरी तीन बहनें। एक बहन की शादी हो जाने पर और
दो बहनें शादी के लिये रहेंगी। पढ़ाई भी ख़त्म नहीं हुई, बीच मजधार में हूँ। क्या कर सकता हूँ?
‘मुझ से शादी कर लो न?’ अपने आप ही रुख़साना मुंह खोलकर पूछ बैठी। मेरे दिल को काफ़ी तकलीफ़ हुई। ऐसे लगा
जैसे किसी ने मेरा दिल निचोड़ कर रख दिया हो। कैसे कर लूँ शादी? क्या कर रहा हूँ मैं, जो शादी के बारे में सोचूँ। घर के
हालात भी ठीक नहीं हैं। अगर अब मैं शादी कर लूंगा तो घर में सब गड़बड़ा जाएगा। कैसे...कैसे...
मैंने कहा- ‘कैसे भी करके दो तीन साल अपने घर वालों को रोक नहीं सकती?’
‘नहीं, कह रहे हैं कि इस गर्मा में ही शादी कर देंगे। मेरे फुफुमाँ (बुआ) का लड़का जल्दी कर रहा है।’
‘क्या करता है तुम्हारी बुआ का लड़का?’
‘मेकानिक!’
‘मेकानिक? मेकानिक को इंटर तक पढ़ी लड़की क्यों? तुम्हारे लोगों को अक़ल नहीं है क्या?’
‘मेरे घर वालों की हैसियत इतनी ही है!?’
‘फिर क्यों पढ़ाए?’
‘मैं झगड़ा कर-कर के पढ़ते हुए आ रही हूँ।’
‘फिर अब भी झगड़ा करो, उससे शादी नहीं करूंगी कहकर।’
‘नहीं मान रहे हैं।’
‘फिर क्या करोगी?’
‘तुम ही बताओ।’
‘मैं अभी शादी नहीं कर सकता रुख़साना! घर में दो छोटी बहनें हैं। घर के हालात ठीक नहीं हैं.....’ कहकर समझाने लगा।
‘फिर क्यों प्यार किया? इससे पहले यह सब क्यों नहीं सोचा?’ रुख़साना ने ग़ुस्से से पूछा।
क्या कहूँ समझ नहीं पाया।
बस... रोते हुए चली गयी... कितना बुलाने पर भी नहीं रुकी। उसके पीछे-पीछे मैं भी साइकिल लेकर गया। वह बुरके में
 ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी इस बात का पता चल रहा था। उसके घर की गली आते ही मेरी साइकिल को ब्रेक लग गया।
वह आगे चली गयी। घर के अंदर जाते हुए उसने एक बार फिर मुड़कर देखा। वही आख़िरी बार उसको देखना था।
यह मैंने बिल्कुल भी नहीं जाना था लेकिन वही उसका आखिरी बार देखना हुआ!
इसके बाद कितनी बार उस के घर के चक्कर काटे। किसी दिन रुख़साना दिखायी नहीं दी। उस घर के आगे जाते ही
रुख़साना के लिए ही ख़ासकर लगायी गयी बेल टिंग-टिंग करके बजाया करता था। उस बेल की आवाज़ सुनते ही
रुख़साना दौड़कर बाहर आती थी। उस दिन के बाद कितनी बार बेल बजाने पर भी वह बाहर नहीं आयी। कुछ दिनों
तक तो पागलों जैसी हालत हो गयी थी मेरी। खाना नहीं खाया जाता था। नींद नहीं आती थी। घर के बाहर खाट बिछाकर
सोने पर चाँद में भी रुख़साना का चेहरा दिखायी देता था और मैं रो पड़ता था। करवटें बदल-बदल कर कितनी-कितनी
देर के बाद नींद आती तो सुबह तक रुख़साना के ही सपने। मेरी हालत देखकर मेरे घर वाले बहुत परेशान होते थे।
उस गर्मी के आखिरी दिनों में रुख़साना की शादी की चहल-पहल और उसके नूर से उसका घर भी चमकने लगा। बाद में
जब यह बात मेरे समझ में आयी तो मैं बहुत रोया। एक दिन शादी भी हो गयी! अपने बच्चे को खोकर कौवा जिस तरह
चक्कर काटता है उस दिन मैं भी उसी तरह उस के घर के चक्कर काटा था। लेकिन कोई फ़ायदा नहीं?
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बस बड़ी घड़ी के सेंटर के पास रुकते ही मैं उतर कर जल्दी-जल्दी टीले की ओर चलने लगा। टीले की सड़क की शुरुआत
में ही बड़ी कमान बनायी गयी थी। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में उर्दू, तेलुगु, इंग्लिश में ‘लतीफ़ शाह वली उर्स’ लिखा था।
कमान पार करके आगे क़दम रखते ही उस ओर और इस ओर ठेले वाले और कई तरह की दुकानें शुरु हो गयीं, उन सब को
पार करते हुए मैं टीले के क़रीब गया। ऊपर नज़र पड़ते ही बचपन की यादें आँखों के सामने घूमने लगीं। पेड़ बहुत उगाए
गए थे। लोग बहुत हैं। दायीं ओर जल्दी-जल्दी नीम के पेड के नीचे गया। मेरी बहनें वहाँ खड़ी थीं। मुझे देखते ही ‘इतनी
देर कर दी’ कहते हुए उनके चेहरे खिल उठे। फिर वह मुझ पर बरस पड़ीं। वालेकुम सलाम कहे बिना ही मैंने सभी को जी
भर के देख लिया। बच्चे मुझ से लिपट गए। कुशल मंगल पूछने के बाद वहाँ से चलने के लिए कहा। जब तक 8-30 बज
चुके थे।
मेरी छोटी तीनों बहनें, उनके बच्चे, हमारा छोटा भाई उसकी पत्नी सभी लोग वहाँ से चलने लगे। मैं गाँव के बारे में पूछ रहा
था। छोटा भाई और बहनें बता रही थीं। माँ ऊपर चढ़ नहीं पातीं इसलिए उनके न आने की ख़बर फ़ोन पर ही दे दी गयी थी।
मेरी पत्नी को भी बुख़ार था जिसकी वजह से वह नहीं आ पायी थी। यह बात उनको मैंने फ़ोन पर ही बता दी थी।
उस दिन उर्स का पहला दिन था इसलिए टीले की सीढ़ियों पर कितने लोग भरे थे। दस, ग्यारह बजे तक और बढ़ेंगे।साढे़
आठ बजे ही चढ़ने उतरने वाले लोग चढने-उतरने लगे थे।
हम लोग पहली कमान की पहली सीढी को झुक कर सजदा करके आगे बढ़े। वहाँ के फ़क़ीर हाथ में कश्कोल लिए, कडछा
ओर डफ़ बजाते हुए... हमारे सरों को मोर छल से मार कर दुआएं दे रहे थे। मैंने अपनी जेब में जो छुट्टा था उसको
फ़क़ीर के कश्कोल में डाल दिया और आगे बढ़ा। फ़क़ीर सभी के गले को ऊद लगा रहे थे। सीढ़ियों के दोनों ओर फ़क़ीर
बैठे ‘अम्मा!, अम्मा! बाबा! बाबा!’ कहते हुए ख़ैरात मांग रहे थे। अंधे, लंगडे-लूले... उन सभी को देखने पर बहुत दुःख
होता है। सभी लोग ख़ासकर छोटे बच्चे, उनके माता-पिता के दिए हुए पैसे जो फ़क़ीरों को देने के लिए देते हैं उसको
फ़क़ीरों को डालते हुए टीले पर चढ़ते हैं।
मैं और मेरी छोटी बहन उसकी छोटी लड़की को गोदी में लेकर धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। बचपन में की गयी गिनती
के अनुसार 14 सौ सीढ़ियाँ होनी चाहिए। उस समय एक ही दिन में दो-दो बार चढ़ते-उतरते समय गिनती करते रहते थे
और सीढ़ियों का नम्बर याद करते हुए उतरते थे। मैं चढ़ते-उतरते लोगों को देखते हुए, उनको परखते हुए ऊपर चढ़
रहा था।
‘क्या लाए हो।’ कहकर बड़ी बहन ने छोटी बहन से पूछा।
‘क्या है, रोटी-दाल!’ उसने कहा
‘इतना ही!?’ कहा निरुत्साह भरी आवाज़ में।
दूसरी छोटी बहन से रहा नहीं गया उसने कहा - ‘तुम्हारी पसंद की चीज़ भी लाए हैं भाई।’
मुंह में पानी भर आया। मैंने पूछा ‘तल कर लाए हो?’
उसने कहा-‘हाँ! डेढ़ किलो लाकर, आधा तलकर लाए हैं और आधा सालन बनाया है।’
हमारे रिश्तेदार, जान-पहचान के लोग जो कोई भी वहाँ हम से मिल रहा था उन सभी से बात-चीत करते हुए हम लोग
ऊपर चढ़ रहे थे।
‘हाय! मेरे पैर दर्द कर रहे हैं। थोड़ी देर रुकेंगे।’ बड़ी छोटी बहन ने कहा।
सीढ़ियों के थोड़ा बाज़ु जाकर हम पत्थरों पर बैठ गए। मेरा छोटा भाई और उसकी पत्नी बातें करते हुए हम से थोड़ा आगे
चले गए। उनकी शादी के बाद का यह पहला उर्स था। हम लोगों को वहाँ रुका हुआ देखकर वह लोग भी पीछे आ गए।
धूप बढ़ रही थी। इसलिए सभी को प्यास लगी थी, बोतल में लाया हुआ पानी सभी लोग मिलकर थोड़ा-थोड़ा पी लिए।
बच्चों को भी पिलाया।
नीचे देखने पर टीले के आगे सारा नलगोंडा दिखायी दे रहा था। शहर का बायीं ओर का थोड़ा सा हिस्सा दिखायी दे रहा था।
दायीं ओर टीला ऊँचा होने के कारण उस ओर दिखायी नहीं दे रहा था।
थोड़ी देर आराम करने के बाद फिर से सीढ़ियाँ चढ़ना शुरु कर दिया। जैसे-जैसे ऊपर चढ़ रहे थे नीचे के घर छोटे-छोटे
घरौंदों की तरह लग रहे थे। फिर थोड़ी देर चढ़ने के बाद हम फिर एक जगह रुक गए। हमारा छोटा भाई अपनी पत्नी को
हमारे गाँव की सड़क, दूर से दिखायी देने वाले पेड़ों को दिखा कर कह रहा था कि ‘वही हमारा गाँव है।’ मेरी नज़रें भी उस
सड़क को देखते हुए हमारे गाँव के शिवराजुपल्ली को ढूँढ़ रही थीं।
फिर ऊपर चढ़ने वालों को देखा। मुसलमान कितने हैं, उससे कहीं अधिक मुसलमानेतर लोग हैं। मुझे लगा वास्तव में
बहुजन संस्कृति का मतलब यही है । दरगाह मुसलमानों की होने के कारण यहाँ ऊपर चढ़ने वालों के किसी के माथे पर
बिंदी नहीं है। उनके कपड़ों को देखकर, भाषा को सुनकर पता चलता है कि वह कौन हैं। वास्तव में थोड़ी जमातों के प्रचार
के कारण मुसलमान एक ओर, हिंदुत्ववादी संस्थाओं और पार्टियों के प्रचार के कारण मुसलमानेतर लोग दूसरी ओर
दरगाह की संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं फिर भी जनसंख्या के बढ़ते रहने के कारण हमेशा की तरह दरगाहों की चमक
वैसे ही है। लेकिन सुना है कि मस्जिदों में मौलाना कह रहे हैं कि दरगाहों को मत जाओ, वहां सजदे मत करो। इस बात
से बहुत तकलीफ़ होती है। पता नहीं आख़िर में इन उर्सों का भविष्य क्या होगा..!
मेरी नज़र नीचे से ऊपर चढ़ते हुए एक बुरके पर पड़ी। दूर से ऐसे लगा जैसे उस चेहरे को कहीं देखा है। उसके साथ एक
लड़की है। छोटे बच्चे का हाथ थामे उसको धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ा रही थी। ऐसे ही देखता रहा, वह और क़रीब आयी।
एक बार को ऐसे लगा जैसे दिल ने धड़कना बंद करके फिर से धड़कना शुरु किया हो। वह...वह... रुख़साना! उसी तरह
वहीं पर मैं सूखी काठ की तरह खड़ा रह गया। मस्तिष्क मंद पड़ गया। रुख़साना पास आने लगी।
मेरी छोटी बहन ‘चलेंगे?’ कहकर मुझ से कह रही थी।
रुख़साना हमारे समीप आ गयी। लेकिन उसने हमारी ओर नहीं देखा। हमें पार करके चले गयी।
‘रुख़साना!’ यह नाम मेरे अंतःकरण से अनायास ही निकल पड़ा।
रुख़साना परेशान होकर पीछे मुड़कर देखने लगी। लगता है थोड़ी देर के लिए कौन? क्या है?, उसकी समझ में कुछ नहीं
आया। बाद में उसने भी पहचान लिया। लेकिन पता नहीं क्यों कुछ परेशान होकर देख रही थी। मेरे आस-पास लोगों को
डरते हुए देख रही थी। मैंने अपने आप को संभाल कर कहा –
‘इधर आओ रुख़साना!’
‘सलाम अलैकुम’ कहते हुए बच्चे को धीरे से चलाते हुए हमारी तरफ़ आयी।
मैंने पूछा - ‘कैसी हो?’
‘ऐसे हैं!’कहा नक़ाब की गांठ खोलते हुए।
मेरे घर वाले परेशान होकर देख रहे थे।
मैंने अपने घर वालों से रुख़साना का परिचय कराया। मेरी बहनों ने सलाम का जवाब देते हुए उससे हाथ मिलाया।
आख़िर यह है कौन? सवाल अपने चेहरे पर लिए हुए वह लोग मेरी ओर देख रहे थे।
मैंने कहा कि मेरे कॉलेज के दिनों में इसी उर्स में इनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी। शक्की नज़रों से मेरी तरफ़ देखकर फिर
उन्होंने अपने आपको संभाल लिया।
मैं रुख़साना को ही देख रहा था। वह भी मुझे ही देख रही थी। फिर से मेरे देखते ही नज़रें चुरा ले रही थी। पीने के लिए
पानी आगे बढ़ाया। उसने कहा ‘है’। बच्चे को गोद में उठा लिया, बहुत प्यारा है। तीनों बच्चे गोरे हैं। लड़कियाँ रुख़साना
की जैसी हैं।
रुख़साना से मिलने की मुझे बहुत ख़ुशी हो रही थी। एक पल में हमारी पिछली यादें फिर से ताज़ा हो गयीं। टीले के
आस-पास, जो बातें हमने की थीं वह सभी मन पर छाती गयीं।
मेरी दूसरी बहन ने रुख़साना से बात करते हुए पूछा - ‘कहाँ रहती हो?’, इसके साथ ही सबका ध्यान उस ओर हो गया।
रुख़साना ने कहा - ‘यहीं, हैदरखां गुड़े में’
मुझे लगा ‘ओ.. हो’ नलगोंडा में ही दिए हैं।
‘इनके अब्बा नहीं आए?’ कहकर बच्चों को दिखाते हुए, मेरी बड़ी बहन उनके पिता के बारे में पूछने लगी।
रुख़साना ने कहा - ‘नहीं उनको थोड़ा काम था इसलिए नहीं आए।’
‘चलेंगे?’ छोटे भाई ने कहा।
सब मिलकर वहाँ से चलने लगे।
मैं रुख़साना के लड़के को गोद में उठाए हुए था इसलिए मेरे छोटे भाई ने हमारी छोटी बहन की लड़की को गोद में ले लिया।
हमारी दूसरी बहन रुख़साना से कुछ न कुछ बात करते हुए सीढ़ियाँ चढ़ रही थी। मैं रुख़साना की लड़की से क्या पढ़ रही
हो पूछते हुए सीढ़ियाँ चड़ रहा था। लड़की आठ साल की है। मुझे ऐसा लग रहा था उस लड़की की बातें ऐसी हैं जैसे रुख़साना
उस समय करती थी।
मेरा छोटा भाई और उसकी पत्नी आगे थे। उनके आगे मेरी बहनों के चार बच्चे, मेरी दूसरी बहन-रुख़साना-मझली बहन
एक लाइन में, मेरे साथ रुख़साना की लड़की, हमारे पीछे मेरी छोटी बहन उसके पाँच साल के लड़के का हाथ पकड़कर,
चल रहे थे।
हमारी छोटी बहन को रुख़साना कबाब में हड्डी की तरह लग रही थी। इसलिए वह मुंह फुलाए हुए थी।
हम लोग दरगाह के क़रीब आ गए। और थोड़ा चढ़ने से दरगाह तक पहुँच जाएंगे।
रुख़साना ने पीछे मुड़कर देखा, उसके लड़के को मैं सुरक्षित गोद में लिए हुए था। मुझे देखते ही एक क्षण के लिए सारी
दुनिया की ख़ुशी उन आँखों से झलकने लगी... फिर से वह आगे की तरफ़ मुड़ गयी।
मैंने कहा यहाँ थोड़ी देर रुकेंगे। एक बार नीचे की तरफ़ देखा। बच्चे को उठाकर सीढ़ियां चढ़ने से सांस फूलने लगी थी।
फिर सभी लोग रुककर टीले के आस-पास देखने लगे। दायीं तरफ़ लतीफ़ साहब के टीले के समान उतनी ही ऊँचाई पर
कावुराला गुट्टा है। उस कावुराला गुट्टा पर क़िले की दीवारें दिखायी दे रही थी। दोनों टीलों के बीच जामा मस्जिद के
क्षेत्र में वहाँ के घर बहुत ही नज़दीक-नज़दीक दिखायी दे रहे थे। टीले के ऊपर देखने पर दरगाह दिखायी दे रही थी।
उसकी बग़ल में ही एक पेड़ है, उस पेड़ पर हरे रंग के बड़े-बड़े झंडे लहरा रहे थे।
हम लोग फिर से चलने लगे।दरगाह क़रीब आने लगी।सीढ़ियों के दोनों ओर फ़क़ीर अपने आगे कपड़ा बिछाए हुए‘बाबा!
’‘बाबा!’कहकर चिल्ला रहे थे। सभी लोग जेब में रखे हुए छुट्टे पैसे उनको देते हुए आगे बढ़ रहे थे। सीढ़ियों के ख़त्म होते
ही, रुख़साना के क़रीब जाकर मैंने हमारे साथ ही रहने के लिए कहा। सब लोग दरगाह की दायीं ओर के पत्थर की ओर
चलने लगे। पत्थर से लगा हुआ जो पेड़ है वह हमारे गाँव के हिप्पी कटिंग वाले की तरह दिखायी देता है।हम लोग पत्थर
 के पीछे वाले पेड़ के नीचे जगह देखकर बैठ गए।
थोड़ी देर थकान उतारने के बाद मैंने अपने छोटे भाई और उसकी पत्नी से कहा कि वहीं बैठे रहना हम लोगों के आने के
बाद जाना। मेरी छोटी बहनें, रुख़साना मिलकर दरगाह के पास गए। मैंने सर पर दस्ती बाँध लिया। मेरी बहनें, रुख़साना
ने सर पर अपनी साड़ी का पल्लू भरकर ओढ़ लिया।दरगाह के पास जाते ही ऊद, अगर बत्ती की महक के साथ चमेली,
गुलाब के फूलों की महक हमें एक अलग ही दुनिया में ले जा रहे थी। दरगाह के चारों ओर चक्कर काटने वालों के साथ
हमने भी तीन बार दरगाह के चारों ओर घूमा। उसके बाद बहनों ने एक दरवाज़े के पास खड़े होकर नारियल फोड़ा और
जो मिठाई लाए थे उसे फ़ातिहा दिलवाया। वह लोग अंदर नहीं आ सकते। मैं, पुरुषों के दरवाज़े से अंदर चला गया।
दरगाह के बीच लतीफ़ साहब की समाधि (मज़ार) है। फूलों की चादरों से लदी हुई वह बहुत ऊँची लग रही थी। थोड़ी देर
के लिए मैं उस अद्भुत दृश्य को देखते हुए खड़ा रह गया। ऊपर देखा कि गुंबद के अंदर का भाग देखने में बहुत सुंदर लग
रहा है! अंदर लोगों का आना बढ़ रहा है। अब मुझे चलना चाहिए। अंदर फ़ातिहा देने वाले मुजावर बड़ी-बड़ी दाढ़ियों वाले
थे। मैं मज़ार के दायीं ओर जाकर घुटनों के बल बैठा और मज़ार पर चढ़ाए गए फूलों पर हाथ रखकर सजदा किया। चेहरे
पर उन फूलों की चुभन बहुत ही मधुर लग रही थी। मन फूलों की महक से भर गया। थोड़ी देर तक वैसे ही रहा। बाद में धीरे
से उठा। नज़र उठाकर आगे देखा तो उस ओर की चौखट पर रुख़साना खड़ी मुझे ही देख रही थी। मेरी बहनें फ़ातिहा
 दिलाना ख़त्म करके वहाँ से जा रही थीं। बिना पलक झपके थोड़ी देर रुख़साना को देखता रहा। वह भी टिकटिकी लगाए
 मुझे ही देख रही थी। उन नज़रों में कितनी भावनाएँ थी.... मन भारी हो गया.... धीरे से बाहर आने लगा.. वह भी पीछे मुड
गयी।
बाहर आकर दरगाह के दायीं ओर के पेड़ की तरफ़ देखा। उस पेड़ को ही माँ कई बार झंडा चढ़ाती थी.... परेशानी दूर होगी
 कहकर..... बहनों की शादी के लिए... हम परीक्षाओं में पास हो जाएं इसके लिए...नौकरी के लिए....कौन सी मुराद पूरी हुई,
कौन सी नहीं हुई यह माँ को ही पता है। बचपन में माँ के कहने पर उसके पीछे हरे रंग का झंडा पकड़कर टीले पर दौड़ते थे....
बस!
सभी लोग मिल कर फिर से पत्थर के पिछवाड़े आ गए। हमारे आते ही छोटा भाई और उसकी पत्नी दरगाह के लिए निकल
पड़े। बच्चे इधर-उधर फिर रहे थे। उस पत्थर के एक ओर से दस सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं। सीढ़ियां चढ़ने पर पत्थर से एक
चश्मा निकलता नज़र आता है। उस चश्मे से पीने के लिए कितना भी पानी निकाल ले फिर से उसमें हमेशा की तरह उतना
ही पानी भरा रहता है।थोड़े दिनों के बाद वह सूख गया। कहते हैं कि उस स्वच्छ पानी के चश्मे में किसी ने खाना खा कर
झूठा हाथ धोया था जिस के कारण वह सूख गया। इस तरह टीले के चारों ओर कितनी ही अजीब सी कहानियां बिखरी हैं।
बहन के बच्चे आए उनकी मां की लायी हुई मिठाई और नारियल के टुकड़े थोड़े-थोड़े लेकर खाए और फिर से ग़ायब हो गए।
रुख़साना की लड़की उसके छोटे भाई को लेकर कहीं चली गयी थी। हमारी बहनें भी कहीं हट गयीं। जिसके कारण वहाँ पर
मैं और रुख़साना ही बचे।
‘कैसी हो?’ मैंने पूछा।
‘ठीक ही हूँ, बाद में मेरी याद कभी नहीं आयी?’
‘भूलने पर न...’
‘मैं हर साल इस टीले पर चढ़ते समय तुम्हें ढूँढ़ती थी। एक बार भी मुझे दिखायी नहीं दिए।’ नाराज़ होते हुए कहने लगी।
‘अच्छा... मैं चढ़ते समय भी देखता था लेकिन शायद दोनों एक ही टाइम में ऊपर नहीं चढ़े होंगे। वैसे भी इस बीच बहुत
साल हो गए टीले की सीढ़ियाँ चढ़ कर।’
उसके पति के बारे में पूछना चाहता था। बीच में उसके बारे में क्यों पूछूँ सोचकर खामोश हो गया...
मैंने पूछा- ‘पढ़ाई वहीं तक रोक दी क्या?’
रुख़साना कुछ सोच रही थी। लगता है उसने मेरी बात नहीं सुनी। मैंने उसको धोखा दिया, यह बात मेरे मन में खटक रही
थी...
‘उस समय क्यों... फिर से मुझ से मिलने के लिए एक बार भी नहीं आए?’वह फिर से कहने लगी।
‘तभी मेरे चाचा ने मुझे तुम से बात करते हुए देख लिया था और वह बात मेरे घर में बता दी थी। तुमने तो उस समय कहा
था कि शादी नहीं कर सकते। और क्या करूं। मेरी बुआ के लड़के के साथ ही शादी पक्की कर दी गयी। मैंने आगे पढ़ने की
कितनी ज़िद की मेरी बात सुनने को कोई तैयार नहीं था।’
‘ठीक है, अभी सभी ठीक है न...’
बदले में रुख़साना ने कुछ नहीं कहा बल्कि एक प्रकार से मेरी तरफ़ देखती रही।
मुझे कुछ समझ में नहीं आया।
‘तुम बहुत याद आते थे, पता नहीं क्यों, उस एक साल में ही तुम्हें बहुत चाहने लगी थी। शायद मेरे पति का मेकैनिक होने
 की वजह से या तुम्हारे पढ़े लिखे होने की वजह से। हो सकता है मुझे भी पढ़ाई-लिखाई बहुत पसंद रहने की वजह से पता
नहीं क्यों? तुम से शादी न होने के कारण मन बुझ सा गया था। उससे बाहर निकलने में बहुत समय लगा। तुम्हारा क्या है,
तुम मर्द हो, तुम ठीक ही हो।’
मैं कुछ कहने वाला था इतने में रुख़साना के बच्चे आ गए। इसके बाद एक-एक करके सब लोग आकर बैठ गए। मेरी बहनें
और रुख़साना बहुत अच्छे से घुल-मिल कर एक दूसरे से बातें कर रहे थे। यह देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई।
मैं रुख़साना को ही देख रहा था।उसका चेहरा चौधवीं के चाँद की तरह चमक रहा था। इससे पहले की बजाए अब की
रुख़साना में एक भरापन, संपूर्णता दिखायी दे रही थी।
वह भी बीच-बीच में मुझे देख रही थी। उन नज़रों में एक आत्मीयता!, अपनापन! था।
हाँ रुख़साना का पति नहीं आया? क्या यह लोग अच्छी तरह से मिल-जुल कर नहीं रहते!? मेरे मन में अनेक प्रकार के प्रश्न
आ रहे थे।
सभी ने अपना-अपना खाने का डिब्बा खोला और सभी मिलकर एक-दूसरे से मांग-मांग कर लेते हुए, बातें करते हुए खा रहे
थे।
मेरी बहन के लड़के ने पूछा कि ‘मामा इस दरगाह का इम्पॉर्टेन्स क्या है!’
मैं दरगाहों के बारे में थोड़ा विस्तार से ही बताने लगा - ‘यह सभी दरगाह सूफियों की है। वह इस्लाम को फैलाने के लिए
काम करते थे। उनकी अच्छाई, स्वभाव की निर्मलता, समाज के दलित-पीड़ित, चमार-महार, शूद्रों के, ग़रीबों के साथ
उनके रहने के तरीक़े ने उन्हें लोगों के बीच ख़ुदा बना दिया। उनकी मृत्यु के बाद एक रूप लेने वाली जगह ही है यह दरगाह।
 इनके पास मुसलमानों के समान मुसलमानेतर लोग भी आते हैं। इस तरह हिंदूओं और मुसलमानों का मिल जाना एक
अच्छी संस्कृति है...’
‘इसलिए हमारे भैया ने हर साल उर्स में सभी लोग मिलेंगे कहकर इस साल इस तरह शुरु किया है।’ मेरी दूसरी बहन ने
कहा।
बाद में कितनी बातें की।
अब सब लोग मिलकर लौटने लगे। इस बार मेरी बहनें, भाई आगे चल रहे थे। मैं और रुख़साना थोड़ा पीछे सीढ़ियाँ उतर रहे
थे। रुख़साना के लड़के को इस बार भी मैं ही गोद में लिए हुए था।रुख़साना मेरे बारे में, मेरी बेगम के बारे में इन्ट्रस्ट से यह
वह पूछ रही थी। मैं उस ख़ूबसूरत चेहरे को देखने में ही तन्मयता प्राप्त करते हुए सीढ़ियां उतर रहा था।
टीले की सीढ़ियों का एक तिहाई हिस्सा उतरने के साथ ही रुख़साना ने बैग में से मोबाइल निकाल कर किसी को फ़ोन
किया।
अरे, फ़ोन न. लिया ही नहीं। सीढ़ियाँ उतरने के साथ ही ले लूंगा सोच रहा था।
ऐसे लगा जैसे बहुत जल्द सीढ़ियाँ उतर गए हम।
टीले से उतर कर नीम के पेड़ के नीचे तक आ गए। शाम होते ही और लोग बढ़ने लगे। गड़बड़ बहुत बढ़ गयी थी। थोड़ी देर
में रुख़साना चली जाएगी न... कैसे? सोच कर मन उदास सा हो रहा था। फ़ोन नम्बर माँगा। कुछ बातें करते हुए उसने
नम्बर ही नहीं दिया। फिर से नम्बर माँगा। फिर से बात बदल दी लेकिन नम्बर नहीं दिया। थोड़ी सी तकलीफ़ हुई।
‘तुम्हारे पति तुम्हारा अच्छे से ख़्याल रखते हैं न?’ पूछा।
‘मेरे पति शुरु में बहुत ज़िद्दी थे। थोड़े दिन शुरु में बहुत मुश्किल हुई। अब थोड़ा बदल गए हैं। हिन्दी विद्वान तक परीक्षा
 देकर परसों ही डी.एस.सी की परीक्षा लिखी हूँ। ज़रूर पास हो जाऊंगी।टीचर की नौकरी करना चाहती हूँ।’ उसने निश्चित
रूप से कहा।
इतने में रुख़साना का फ़ोन बजा। जिससे -‘मेरे पति आ गए हैं’ कहते हुए उसने आतुरता से बच्चे को मेरे पास से ले लिया।
मेरी बहनों की ओर मुड़कर, ‘आपा! मैं चलती हूँ... फिर अगले उर्स में मिलेंगे।’ कह कर मेरी बहनों को बाय कह कर मुझे
हाथ के साथ नज़रों से भी गुड-बाय कह कर आगे बढ़ गयी।
रुख़साना का पति कैसा होगा यह सोचते हुए मन में आतुरता लिए हुए मैं जिस रास्ते से वह जा रही थी, उसी रास्ते की
ओर देखते हुए खड़ा रहा। रुख़साना का पति उसके क़रीब आकर उसकी गोद से बच्चे को ले लिया और कुछ पूछ रहा था।
रुख़साना ख़ुशी से कुछ कह रही थी। उसका पति देखने में अच्छा है। वह लोग बहुत ही चुस्ती से बच्चों के साथ उर्स के
लोगों में मिल गए।
फ़ोन नम्बर न ले पाने का दर्द मेरे मन से उड़ गया। मुझे लगा रुख़साना अपने पति बच्चों के साथ ख़ुश ही है। मेरे लिए
इतना काफ़ी है।
मैं अपनी बहनों की ओर मुड़ा। वह लोग अपने दोस्तों के मिलने पर उनसे बातें कर रहे थे। उन लोगों में हमारे कुछ रिश्तेदार
भी थे।
आस पास के वातावरण में कितना हल्ला-गुल्ला मचा हुआ था।... पेड़ों के नीचे कितने लोग झुंड में बैठकर बातें कर रहे थे।
ऐसा लगा जैसे यह उर्स इस तरह हर साल लोगों को मिलाने के लिए ही है। रुख़साना को फिर से देखने के लिए अगले उर्स
 का इंतज़ार करना ही पड़ेगा यह सोचते हुए मैं वहाँ से चल पड़ा।

तेलुगु से अनुवाद- डॉ. साबिरा बेगम
Post Doctoral Fellow
हिन्दी विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालय
हैदराबाद-46


आगे पढ़ें: रचनाकार: स्कै बाबा की कहानी - उर्स http://www.rachanakar.org/2014/08/blog-post_12.html#ixzz3C1nDAHkr

Saturday 7 June, 2014

ఏక్ నయీ ఖిడికీ (నా కథ, నమస్తే తెలంగాణ సండేలో)

Bathukammam
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దినామొక గంటే ఫేస్‌బుక్ సూషే అలవాటు సాహిర్‌కు. షానా టైమ్ తినేస్తుందని ఆ నిర్ణయం తీసుకుండు.
అయాల కొద్దిగ తీరిక దొరికి (ఇంటర్)నెట్‌ల గ్యాంగ్స్ ఆఫ్ వాసేపూర్ 2 సినిమ సూద్దామనుకుండు. ఆ సినిమ దెవులాడి డౌన్‌లోడ్‌కు పెట్టిండు. ఈ లోపల జరసేపు ఫేస్‌బుక్ సూద్దామని లాగిన్ అయ్యిండు. తన వాల్‌లో అంతకు ముందరి తన పోస్ట్‌లకు వొచ్చిన కామెంట్స్‌ని ఒకసారి సదువుకుంట నచ్చిన వాటిని లైక్ (Like) చేసుకుంట వరుసగా పది పోస్టులదాంక చెక్ చేసి షేర్ (Share) చేసిన లిస్ట్‌లు గూడా చెక్ చేసి అక్కడ గూడా లైక్ చేసిండు. అటెంక తన కొచ్చిన మెసేజ్‌లు సదువుకున్నడు. కొన్నిటికి ఆన్సర్ చేసిండు. నోటిఫికేషన్స్ చెక్ చేసిండు. తన వాల్‌లో గాకుండ తాను మెంబర్‌గున్న గ్రూప్‌ల్ల తాను పోస్ట్ చేసిన వాటి కొచ్చిన కామెంట్స్ చెక్ చేసి, ఆ తర్వాత ఫ్రెండ్ రిక్వెస్ట్‌లు చెక్ చేసిండు. అందుల గుడ తనకు నచ్చినోల్లనె కన్‌ఫామ్ (Confirm) చేసుకుంట పోతున్నడు. ఒక ఫొటో లేని అమ్మాయి రిక్వెస్ట్ కాడ ఆగిపొయిండు.

పైంగ ముస్లిం అమ్మాయి.. ఆయేషా! ఫేస్‌బుక్‌లో ముస్లిం అమ్మాయిలే తక్కువ. మల్లందుల తనకు ఫ్రెండ్ రిక్వెస్ట్ పెట్టడం జరంత హుషార్ నిచ్చింది సాహిర్‌కు. మ్యూచువల్ ఫ్రెండ్స్ చూస్తే 4 గురే ఉన్నరు. సూస్తె వాళ్లల్ల ఇద్దరు ముస్లింలే. ఆ అమ్మాయి వాల్‌కి పొయి చెక్ చేసిండు. లివ్స్ ఇన్ హైదరాబాద్ అనుంది. ఒహో అనుకుండు. స్టడీయింగ్ ఇన్ ఉస్మానియా యూనివర్సిటీ! -ఓకె అనుకొని ఫ్రెండ్ రిక్వెస్ట్ కన్‌ఫామ్ చేసిండు. ఆ తర్వాత కనిపించే ఆ అమ్మాయి పోస్టులు కొన్ని తిరిగేసిండు. చార్‌మినార్ సుట్టు బండ్లమీద అమ్మే వస్తువులు కొంటున్న బుర్ఖా స్త్రీలు, టోపీవాలాలు, పిల్లలు.., చమ్కీలు కుడుతున్న బుర్ఖా ఆడవాళ్లు.. వెండిని బాదుతున్న మనుషులు.. పండ్ల బండ్లు- సుట్టు ఎగుర్తున్న పావురాలు... ఓహ్, భలే ఫొటోలు అనుకుండు సాహిర్. అవే గాకుండ పాతబస్తీ గరీబీ ఫొటోస్ ఎక్కువగ ఉన్నై. అవి గూడ మనసును కదిలించే కామెంట్స్‌తోటి ఉన్నై. సదువుతున్నడు.

ఒక ఫొటోల- ఇద్దరు పిల్లల్నేసుకొని సంకల పిల్లతోని నడుస్తున్న బుర్ఖా తల్లి.. ఒక పిల్ల ఆమె చేయి పట్టుకొని నీరసంగ నడుస్తున్నది.. ఆళ్ల మొఖాల్లున్న దీనత్వం మనసుని కకావికలం చేసేటట్లున్నది. దానిమీద ఒక కామెంట్ ఉంది-
కహాతక్ యే దర్ద్ భరా సఫర్ అమ్మీ!
కహీఁతో ఇస్‌కో ఖతమ్ కర్దే
దునియాఁ భర్ కీ థకావట్ హోగయీ అమ్మీ!
లేట్‌నే కో దో గజ్ జమీన్ దిఖాదే
ఓహ్... అనుకుంటున్నంతల-
ఆ అమ్మాయి చాట్‌లకు వొచ్చింది- Hi SAAHIR Sir అనుకుంట.
అరె, ఈ పిల్ల Online లనే ఉందా? అని ఆశ్చర్యపొయ్ Hi Ayesha! Nice to meet u అని type చేసి send చేసిండు.


thank u 4 accepting my friend request అని ఆన్సర్ వొచ్చింది.
no thanx. wt r u stdng in ou?
M.Tech first year
oh great. wr frm hyd
charminar. U sir
khairthabad
oh. sir, u r frm nalgonda na?
ya
sir I read ur long poem on Old City. very touching sir..
oh. reallee!
also read ur story MUSLIM sir!
(సంభాషణ ఇంగ్లిష్, ఉర్దూల్ల నడిషింది)
oh.. నీకు లిటరేచర్ అంటె ఇంట్రస్టా?
s sr
k. హాస్టల్ల ఉంటున్నవా? ఇంటి నుంచి పోతున్నవా?
హాస్టల్ల ఉంట సర్. పుర్సత్ దొరికినప్పుడల్ల ఇంటికి పోతుంట.

మరి, ఉస్మానియాల జరిగే ఉద్యమాల్ల పాల్గొంటుంటవా?
హాఁ సర్! సెలెక్టెడ్‌గ..
k.
bfn sir (bfn=bye for now)
k bye అని కొట్టి ఫేస్‌బుక్ నుంచి సైన్ అవుట్ అయ్యి సినిమ సూడ్డంల పడిపొయిండు సాహిర్.
అప్పట్నుంచి అప్పుడప్పుడు కనిపించి, పలకరించేది ఆయేషా. ఒక్కోసారి సీరియస్ చర్చలు చేసేది. ఒక్కోపాలి ముస్లిం ఉమెన్ గురించి రాషిన రచనలు కావాల్నని, ఆటి గురించి చర్చ చేసేది.
pdfలో ఉన్నవి forward చేసేటోడు. కొన్ని లింక్స్ ఇచ్చేటోడు. చదువుకొని మళ్లోసారి తన అభిప్రాయాలు పంచుకునేది. ఆ అమ్మాయి ఆసక్తి, చర్చ చేసే తీరు సూషి తన కోసం కొంత టైం కేటాయించేటోడు సాహిర్. సాహిర్ వాల్‌లో పోస్ట్‌లపై జరిగే చర్చల్ల చురుకుగ పాల్గొనేది.
ఈ ప్రాసెస్‌ల సాహిర్ గురించి షానా సంగతులే తెలుసుకుంది ఆయేషా.
మీ మిసెస్ ఏం చేస్తరు సర్? అనడిగిందొకసారి. తాను పెండ్లి చేసుకోలేదని చెప్పిండు సాహిర్. షాక్ తిన్నది. అదేంది సర్? ఎందుకని? అనడిగింది.

ఆమె కోసం అంత టైం కేటాయించలే ననిపించింది. నా లక్ష్యాలు నెరవేర్చుకోవాల్నంటె పెండ్లిని త్యాగం చెయ్యాల్ననిపించింది. పెండ్లంటె ఆమె ఒక్కత్తే కాదు గదా.. ఆమె తర్వాత పిల్లలు ప్రవేశిస్తరు. వాళ్లకు మరింత టైం కేటాయించాల్సి వస్తది. వాళ్లు మనకు భిన్నంగ తయారైనా భరించాల్సి ఉంటది. అదంత నాకిష్టం లేదు అన్నడు.
ఓహ్! ఇట్ల గుడా సోంచాయిస్తరా సర్? ఇంటుంటెనే ఆశ్చర్యంగ, అబ్బురంగ ఉంది నాకు. నాలాంటోళ్లం గుడా అట్లా ఉండగలమా సర్! అంది జర ఉద్వేగంతోటి.
సాహిర్ నవ్వి, అది షానా కష్టం గూడా ఆయేషా. ఆ ఆలోచన సొంతంగ రావాలె. మన లక్ష్యం- గోల్ ఏమిటో నిర్ణయించుకుని దానికి అడ్డు అనుకుంటెనే అసువంటి నిర్ణయం తీస్కోవాలె. ఊకెనే తీస్కుంటె ఏం లాభం? అన్నడు.

నాకు గుడా ముస్లిం ఆడపిల్లల గురించి, ముస్లిం స్త్రీల గురించి, ముస్లింల మీద అణచివేత, వివక్ష గురించి పనిచేయాలని ఉంది సర్. సీరియస్‌గ సోంచాయిస్తుంటా.. కాని సర్, మీకు ఎప్పుడు గుడ ఒంటరి ఫీలింగ్ రాదా?
ఒస్తుంది. కాని మన లక్ష్యం దానిని డామినేట్ చేస్తుంది.
ఇట్ల నడిచింది ఆ రోజు ఇద్దరి సంభాషణ.
ఒకరోజు- సర్! ఒక విషయం ఎప్పటికప్పుడు మర్షిపోతున్న సర్.. నాకు కతలంటె పాణం! ఒక కత రాయాల్నని అనుకున్న సర్. ముగింపు సమజైత లేదు. అది మీకు చెప్త. ముగింపు మీరు సజెస్ట్ చెయ్యాలె అన్నది.

అట్ల షానామంది చెప్తుంటరు.. వాళ్లు చెప్పేవి అన్నీ కథలుగా రాయడం కష్టం.. కనీ నిరుత్సాహ పర్చడం సరైంది కాదనుకొని చెప్పు అన్నడు సాహిర్.
తెలుగుల యూనికోడ్‌ల కంపోజ్ చేసి మెయిల్ పెట్టనా సర్? అన్నది.
మంచిదే గదా, పెట్టు అన్నడు.
అయితే రేపు చదువురి మీరు అన్నది.
సరే నన్నడు.

రెండో రోజు ఆయేషా పెట్టిన మెయిల్ సదవడం మొదలుపెట్టిండు సాహిర్-
అతియా, షరీఫ్ ఒక జిల్లా కేంద్రంల ఉండేటోళ్లు. పక్క పక్క ఇండ్లు కాబట్టి ఈళ్లిద్దరికి మంచి దోస్తానా కుదిరింది. ఈళ్లిద్దరు రోజు బడికి కలిసి పోయి కలిసి వొచ్చేటోల్లు. ఒక క్లాసు తేడా. ఈళ్లిద్దరి అమ్మానాన్నలు గూడా కలిసిమెలిసి ఉండేటోళ్లు. దాంతో ఈళ్లు మరింత జిగ్రీ దోస్తులు అయ్యిన్రు. షరీఫ్ ఇంట్ల ఏదన్న మంచి కూర వొండితె అమ్మీ! కొంచెం అతియా వాళ్లకు ఇద్దామా? అని అడిగి ఇచ్చిందాంక పానం కొట్టుకునేది షరీఫ్‌కు. ఆ పిల్ల గుడా అంతే. ఇంట్ల ఏ స్పెషల్ చేసినా షరీఫ్ కోసం పట్టుకొచ్చేది. బడిలో వేర్వేరు క్లాసులైనా బయటి కొచ్చిన్రంటె దంట వదలక పొయ్యేది ఇద్దరూ.

ఒకరోజు వీళ్ల దోస్తు సలీం ఇంటోళ్లంతా ఏదో పెండ్లికి పొయిన్రు. ఆ గల్లీలున్న పిల్లలంత కల్సి సలీం ఇంట్ల ఆడుకోబట్టిన్రు. సలీం కాస్త పెద్దోడు. ఏదన్న స్పెషల్ ఆట ఆడుదాం అని ప్రపోజల్ పెట్టిండు. ఏ మాడుదాం? అని జరసేపు పిల్లలందరు తర్జనబర్జన పడ్డరు. ఆఖర్కి అమ్మీ అబ్బా (అమ్మా నాయ్‌న) ఆట ఆడుదాం అనుకున్నరు. నేను-అన్వరి అమ్మా నాయ్‌నగా ఉంటం అన్నడు సలీం. దానికి అన్వరి ఒప్పుకోలె. దాంతోటి షరీఫ్, అతియా అయితే బాగుంటరు అని సలీం అన్నడు. షరీఫ్ అతియా దిక్కు సూషి సరేనా అన్నడు. తలూపింది మురిపెంగ అతియా. సలీం జర పెద్దోడు కాబట్టి షరీఫ్ వాళ్ల నాయ్‌న లెక్క ముసలోడి యాక్టింగ్ చేస్కుంట కుర్సీల కూసొని ఉండిపోయిండు. మిగతా ముగ్గురు పిల్లలు షరీఫ్-అతియా పిల్లల్లెక్క నటించిన్రు. అమ్మా నాయ్‌నలు పొద్దున లేవంగనే ఎట్ల ప్రవర్తిస్తరో, ఏమేం పనులు చేస్తుంటరో అవన్నీ అట్లనె అనుకరించుకుంట చేసిన్రు షరీఫ్, అతియా. జిగ్రీ దోస్తులు అవడంతోటి ఆ ఆటను మస్తు ఎంజాయ్ చేసుకుంట, హ్యాపీగ ఫీలయిన్రు అతియా-షరీఫ్.
ఇగ అప్పట్సంది మరింత అభిమానం పెరిగింది ఆళ్లిద్దర్కీ. ఇంకింత కల్సిమెల్సి తిరిగేటోల్లు. ఇద్దరి అమ్మలు తీరిగ్గ మాట్లాడుకునేటప్పుడల్లా, ఈళ్ల ముచ్చట వొచ్చేది. ఇప్పుడే ఈళ్లిద్దరు మొగుడు పెళ్లాల్లెక్క ఉంటున్నరనుకుంట నవ్వుకునేటోల్లు.

ఇసొంటి టైంల అతియా వాళ్ల నాయ్‌న బతకడానికి హైదరాబాద్‌కు పోవాల్నని నిర్ణయం తీసుకుండు. ఇల్లు ఖాళీ చేసి పోతుంటే వీళ్ల అమ్మలిద్దరు కండ్లనీళ్లు పెట్టుకున్నరు. ఇగ ఈ పిల్లలిద్దరు బోరుబోరున ఏడ్షిన్రు.
సామాను లారీలో ఎక్కించుకొని వొచ్చేస్తుంటే అతియా ఎక్కెక్కి ఏడ్సుకుంట షరీఫ్‌కు టాటా చెప్పింది. కండ్ల నుంచి నీల్లు కారిపోతుంటె చేయి ఊపుకుంట నిలబడిపోయిన షరీఫ్ రూపం అతియా గుండెల్ల గూడుకట్టుకొని పోయింది.
ఈ ముచ్చట జరిగినప్పుడు రాకపోకలు, ఫోను సౌకర్యం వగైరా లేకపోవడంతోని షరీఫ్ ఏమైపొయిండో అతియాకు తెలియలేదు. కాని, షరీఫ్‌ని అతియా ఎంతకు మర్షిపోలేకపోయింది. పెద్దయినంక బచ్‌పనా అంటే షరీఫ్‌తోని ఆడుకున్న ఆటలు, వాళ్ల అమ్మా నాయ్‌న ఆటే గుర్తుకొచ్చేది అతియాకు.
కాని, వాళ్ల నాయ్‌నకు పక్షవాతం వొచ్చింది. రెండేండ్లు నవిషి ఆయన సచ్చిపొయిండు. ఆళ్ల ఇంటి పరిస్థితి చితికిపోయింది. షరీఫ్ కలుస్తడేమోనన్న ఆశ తీరకుంటనే అతియా పెండ్లి ఒక కారు డ్రైవర్‌తోటి జరిగిపొయింది. పెండ్లి రోజు అమ్మను, చెల్లెను, తమ్మున్ని విడ్చిపోతున్ననన్న దానికన్నా ఎక్కువగ షరీఫ్‌కి, అతని యాదికి శాశ్వతంగా దూరమైపోతున్నననే ఫీలింగ్‌తోటే పొగిలి పొగిలి ఏడ్చింది అతియా.
ఇద్దరు బిడ్డలు పుట్టిన్రు. ఒకరోజు పాతబస్తీ హిందూ ముస్లిం గడ్‌బడ్‌లల్ల ఆమె భర్త కత్తిపోట్లకు గురై సచ్చిపోయిండు. ఇరవై ఏండ్లకే విధవరాలైపోయింది అతియా. ఆ తర్వాత రాత్రింబవళ్లు చమ్కీలు కుట్టుకుంట, మిషిన్ తొక్కుకుంట సంసారం ఎల్లదీసుకుంట పిల్లల్ని సాదుకుంట ఒంటరిగ మిగిలిపోయింది. పెండ్లీడు కొచ్చిన పెద్ద బిడ్డ సూడముచ్చటైన అందం సూషి కట్నం లేకుంటనే చేస్కుంటాన్కి ఒక సంబందమొచ్చింది. సాదాసీదాగా చేసినా పెండ్లి ఖర్చులకే కనా కష్టాలు పడింది అతియా.

అయితే, ఆమె యాదిలో మాత్రం ఇప్పటికీ షరీఫ్ సజీవంగనే ఉన్నడు. అతన్ని తిరిగి కలుసుకుంటననే నమ్మకం పోయింది గనీ ఆమెకు ఇద్దరు పిల్లల్ని ఇచ్చిన భర్త కన్నా షరీఫ్ యాదులే ఆమెను వెంటాడుతున్నై. భోలా మనిషి.. పాపం, బజారుకు పొయ్‌నప్పుడల్లా కనిపించే మగవాళ్లల్లో షరీఫ్ ఆనవాళ్లని వెతుక్కుంటు ఉంటది!
సదివేషినంక- సూసుకుంటె సాహిర్ కండ్లల్ల నీల్లు! అతను ఏడ్వక ఏండ్లయ్‌పొయింది. కాని, ఈ కథ అతన్ని అణువణువు కదిలించి పారేసింది. ఆసాంతం దుఃఖబిందువై పోయిండు. ఎన్నో ప్రశ్నలు. ఎన్నో ఉద్వేగాలు అతన్ని సుట్టుముట్టినయ్..
అయాల ఫేస్‌బుక్‌ల్నే ఉండిపోయి ఆయేషా ఆన్‌లైన్‌లకు ఎప్పుడొస్తుందా అని ఎదురు సూడబట్టిండు. ఆయేషా పేరు పక్కన గ్రీన్ మార్క్ ఎలగంగానే మొదటిసారిగ సాహిరే ఆత్రంగ హాయ్ కొట్టిండు.
సదివిన్రా సర్?
సదివిన ఆయేషా..
ఎట్లుంది సర్?
ఈ అతియా నీకు తెలుసా ఆయేషా? అడిగిండు..
మా పక్కిల్లే సర్! ఆమె అంటె నాకు షానా అభిమానం. అప్పుడప్పుడు ఆమె చెప్పిన మాటల్ని బట్టి, నేను గుచ్చి గుచ్చి అడిగిన విషయాల్ని బట్టి ఇదీ ఆమె కత. కని నాకు ఆ తర్వాత ఏం రాయాల్నో సమజైతలేదు సర్. తర్వాతి పార్ట్ మీరు రాయిరి సర్. దీన్ని మొత్తంగ ఒక కతగ రాయిరి. షరీఫ్ వైపు నుంచి మీరు రాస్తె బాగుంటది.
నేను రాయలేను ఆయేషా ఈ కత!
ఎందుకు సర్?
ఈ కత ముగింపు నాకు తెలియదు!
షరీఫ్ గుడా ఆమె యాదులతోనే ఉండే అవకాశముంది గదా సర్?
అవును.. ఉండే అవకాశముంది..
సర్! ఏమనుకోవద్దు.. ఒకటి అడగనా?
అడుగు
ఇది మీ కతే కదా..?!
అవును..! నీకెలా తెలుసు?!
మీ వివరాలన్నీ తెలుసుకున్నప్పుడె చూచాయగ సమజైంది సర్. ఇప్పుడు కన్‌ఫామ్ చేసుకున్నా.
అవునా..!
ఈ కతలో మీ వెర్షన్ ఏంటి సర్?
మాటలు రావడం లేదురా...
సర్! దుఃఖంగా ఉందా ఏమిటి?
అవునమ్మా... ఆ కథ చదివినప్పట్నుంచి షానా దుఃఖంగా ఉన్నా.
అతియా గురించి మీరెందుకు ఎతకలేదు సర్?
హు! వెతక్కుండా ఎట్లుంట ఆయేషా. వెతికిన, కని ఏ ఆధారం దొరకలే.
అవునా..
ఇప్పుడెట్ల ఉందమ్మా అతియా?
ఇంకా మీ యాదిల్నే జీవిస్తున్నది సర్. మిషిన్ కుట్టీ కుట్టీ కళ్ళద్దాలొచ్చేసినయ్. అట్ల అనేకంటే మీ కోసం ఎదురుచూసీ చూసీ వొచ్చి ఉంటాయేమో..!
నాకొకసారి అతియాను సూపెడతవా ఆయేషా?
అయ్యో! అట్లంటరేంది సర్. తప్పకుండా.
తను ఏమంటదో..!
నేను ఈరోజు అడిగి చూస్త సర్.


ఓకే. మళ్ల నాకు ఎప్పుడు చెప్తవ్? ఆమె ఒప్పుకుంటె రేపే ఆమెను కలపాలె.
తప్పకుండ సర్. ఆమెను ఈవినింగ్ అడిగి నెట్ సెంటర్‌కు పోయి మీకు మెసేజ్ పెడత.
ఓకే. థ్యాంక్యూ ఆయేషా. నేను ఆన్‌లైన్‌ల్నే ఎదురుచూస్తుంటా...
ఓహ్! ఓకే సర్. బై..
సర్! అతియాని- నీ సాహిర్‌ని సూడాలని ఉందా? అని అడిగిన సర్. ఒళ్లంత ఒక్కసారిగ జలధరించినట్లు నా దిక్కు సూషింది. నమ్మలేదు. నాకు ఫేస్‌బుక్‌ల ములాఖాతయిండు. నీ గురించి చెప్పిన. నిన్ను ఎంటనే కలుస్తనన్నడు. నీకు ఓకేనా? అన్నా. మనిషంతా కంపించి పోయినట్లనిపించింది సర్! నిజమా? నిజమేనా.. నువు చెప్తున్నది? అనుకుంట నా చేతులు పట్టుకొని అడిగింది.
నిజమే! నీ సాహిర్ నిన్ను కలవడానికి రేపు వస్తనన్నడు. అతను పెండ్లి గుడా చేస్కోలేదు. ఎందుకు చేస్కోలేదంటే ఏందేందో చెప్పిండు -అన్నా. ఏడ్చేసింది సర్. ఆమె ఏడుస్తుంటే నాగ్గూడా ఏడుపొచ్చింది. రేపు పొద్దున ఆయన్ను రమ్మంటవా అతియా? అనడిగిన. లోకం ఏమనుకుంటది? అన్నది ఎనాకా ముందాడుకుంట.


లోకం తోటి నీకెందుకు? నీ కష్టాల్ని లోకం ఎన్నడన్న తీర్చిందా? నీ పరేశాన్లని ఎన్నడన్న అడిగి ఓదార్చిందా? అన్నా.
అవును.. సరె, అవన్నీ తర్వాత సోంచాయిస్తగని, రేపే రమ్మను. నిజంగనే ఒస్తడంటవా? అతను సాహిరేనా?!
అతను సాహిరే! తప్పకుంట వస్తడు అతియా! అన్నా.. ఏమంటరు సర్?
ఓహ్! థ్యాంక్యూ ఆయేషా.. థ్యాంక్యూ వెరీమచ్..!
మీ అతియా మీ కోసమే ఎదురుచూస్తూ ఉన్నది సర్!
హహ్హ..!
ఆ నవ్వుల అగాధాలు తొంగి చూస్తున్నట్లు తోచింది ఆయేషాకు.
రేపు 10 గంటలకు చార్మినార్ బస్టాండ్ ఎదురు బస్తీలున్న ఉర్దూఘర్ దగ్గరికి వొచ్చేయ్‌రి సర్. నేను ఎదురు చూస్తుంట. మిమ్మల్ని అతియా ఇంటికి తీస్కుపొయి ఆమెకు అప్పజెప్పి నేను యూనివర్సిటి పోవాలె అన్నది.
ఓకే రా!
ఓకే.. బై సర్.
సైకిల్ మోటర్ మీద చార్మినార్ చేరుకుండు సాహిర్. ఆ రష్‌ని దాటుకొని ఉర్దూ ఘర్ చేరుకున్నడు. ఒక పక్కన బుర్ఖాల నిలబడి ఉన్న అమ్మాయిని గమనించి ఆడికి పోనిచ్చిండు సైకిల్ మోటర్‌ను. సాహిర్‌ను సూడంగనే దగ్గరికొచ్చి- అస్సలామలైకుమ్ సర్ అని సలామ్ చేసింది ఆయేషా. కండ్లొక్కటే కనిపిస్తున్నయ్ ఆమె మొఖంల. హాయ్ అనుకుంట షేక్ హాండ్ ఇచ్చిండు. చేయి కలిపి, మీ బండి ఎనక కూసోనా అని అడిగి కూసొని పోనియ్‌రి అన్నది. మొఘల్‌పురాల రెండు గల్లీలు మారినంక ఒక ఇంటి ముందల ఆపమన్నది. దిగి రారి సర్ అనుకుంట లోపల్కి పోయింది.

బండి స్టాండేసి లోపల్కి అడుగుపెట్టిండు సాహిర్. గరీబ్ ఇల్లు. ఒక చిన్న అర్ర. చిన్న కిచెన్. బాత్రూం గుడ లేదు. నాలుగిండ్లకు కలిపి కామన్ బాత్‌రూం ఉన్నట్లుంది. కూసొండి సర్ అన్నది ఆయేషా ఒక పాత కుర్సీ సూపెట్టి. కూసున్నడు.
సాహిర్ గుండె వేగం పెరిగింది. అతియా వంట అర్రల సాహిర్‌కు కనబడకుండ నిలబడి ఉన్నట్లుంది. పానీ పీతే సర్? అనడిగింది ఆయేషా.
నఖాబ్ (నోస్‌పీస్) తీయవా? నాకు గుడా నీ మొఖం సూపెట్టకపోతె ఎట్ల? అన్నడు సాహిర్ నవ్వుకుంట.
ఓహ్.. సారీ సర్! అని నఖాబ్ విప్పి యే హై ఆయేషా! అంటు నవ్వింది.. చాంద్ కా తుక్డా నవ్వినట్లు.
ఖూబ్ సూరత్ హో! నీకు నఖాబ్‌లన్నింటినీ మూట కట్టించే పని ఉంది భవిష్యత్‌లో.. అన్నడు నవ్వుకుంటనె.
హా సర్. తప్పకుంట. మనం కలిసే ఆ పనులు చేద్దాం అని సర్, నేను యూనివర్సిటీ పోవాలె. ఆమెను పిలుస్త అన్నది.
ఊ.. పిలువు. రాత్రంత నిద్ర పట్టనే లేదు అన్నడు గుండె వేగం మరింత పెరుగుతుంటే.
తనకు గుడా నిద్ర లేనట్లుంది సర్, ఇందాక సూషినప్పుడు అనిపించింది అనుకుంట వంట అర్రలకు పోయింది ఆయేషా.
ఏవో గుసగుసలు వినబడ్డయ్. సాహిర్ ఆత్రం మరింత ఎక్కువైంది. దాదాపు 30 ఏండ్ల కింద చూసిన అతియా ఇప్పుడెట్ల ఉంటది? సూడాలి సూడాలి అని అతని మనసు గింగిరాలు పోతున్నది. వంట అర్ర తలుపు దిక్కే సూస్తున్నడు, యమ ఆత్రంగ. చిన్నప్పటి అతియా రాబోతున్నట్లే అనిపిస్తున్నది మదిలో... కాని-
తలనిండా కొంగు కప్పుకుని తల వంచుకున్న అతియాను పెండ్లికూతుర్ని పట్టుకొని నడిపించుకుంట వొచ్చినట్లు తీసుకొచ్చింది ఆయేషా. సాహిర్ ముందుకు తెచ్చి నిలబెట్టింది.
సర్! మీరు మాట్లాడుకోరి. నేను పోవాలె. బై అనుకుంట నఖాబ్ గుడ్డ, హాండ్ బ్యాగ్ అందుకొని బైటికెళ్లిపోయింది ఆయేషా.
అతియాను కనురెప్పలు కొట్టడం మర్షిపోయి సూస్తు ఉండిపొయిండు సాహిర్- సాదాసీద చీరల, చేతులకు కాళ్లకు మెడల ఏం లేకుంట బోసిపొయ్‌న మొఖంతోటి భోలా మొఖంతోని నిలబడింది అతియా- తన అతియా! 30 ఏండ్లుగ తన తలపుల్ల దాచుకున్న అతియా! అదే మొఖం.. అదే భోలాతనం! కాకపోతె కాసింత పెద్దదై.. ముడతలు పడుతూ...!
సాహిర్ కండ్లల్ల నీల్లు నిండినయ్. తల ఇంక ఎత్తని అతియాను గొంతు పెగల్చుకొని పిలిషిండు-
అతియా..! అంటూ.

మెల్లగ తల ఎత్తింది అతియా. అమాయకపు ఆ మొఖంలో కండ్లు రెండు నిండు కుండల్లెక్క తొణుకుతున్నయ్! నీళ్లల్ల కదులుతున్న చందమామల్లెక్క సాహిర్‌ని తడుముకుంటున్నయ్ కనుపాపలు!
రెండు అడుగులేసి ఆ మొఖాన్ని తన చేతుల్లకు తీసుకున్నడు సాహిర్.
అతియా కండ్లమీద నిండు కుండలు పగిలిపొయ్‌నయ్. నుదుటి మీద ముద్దు పెట్టి దగ్గరకు తీసుకొని గుండెలకు హత్తుకున్నడు. పొగిలి పొగిలి ఏడ్వబట్టింది అతియా. సాహిర్ గుండె లోతుల్నుంచి తోడుకొస్తున్నది దుఃఖం.. ఊటలెక్క.. తను గుడా ఏడుస్తున్నడు..
అట్ల ఎంతసేపో అల్లుకుపోయి నిలబడిపోయిన్రిద్దరూ...
దుఃఖం జరంత తెరపినిచ్చినంక-
మెల్లగ- తామిద్దర్ని ఇట్లా కలిపిన ఆయేషా యాదికొచ్చింది సాహిర్‌కు..
ఏదో చిన్న అనుమానమేసింది-
అతియా! ఈ ఆయేషా ఎవరు? అనడిగిండు.
గొంతు పెగుల్చుకుని అన్నది అతియా-
నా చిన్న బిడ్డ!

నా కవితా పఠనానికి ఆహ్వానం welcome to my poetry reading



Friday 7 March, 2014

Vegetarians only (a short story) /by SkyBaaba

VEGETARIANS ONLY (A SHORT STORY) /BY SKY BAaBA
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We had been walking since morning in this basti. Our legs ached badly. The soles of our feet burned. We had roamed all the streets and bylanes. We greeted every TO LET board that we sighted. And there were many more streets left to search. We had covered all the lanes to the right and left of the main road. Of the three houses we had looked at, we liked one very much. It was a small portion of a house. The rent was 1500 rupees per month. One room and a small kitchen. In a big city like Hyderabad, this would do for a couple like us. The owner asked us to pay two months’ rent as an advance. We said that we would pay one months’ rent now and another after moving in. He agreed. We were relieved. Paying three thousand immediately would have been impossible. We only had fifteen hundred right now, so this worked out well. We were anxious to give the money to him immediately. Both of us had the same thought—we’d be in deep trouble if someone else gave him an advance before we did!
I took out the money and gave it to him. He counted the money and said, “All right. When would you like to move in?”
“Right away, sir! We’ll bring in some of our things this evening” I said.
“Ok”. As he turned to go in, he paused and asked, “What’s your name?”
I hesitated for a few seconds. We looked at each other. My heart sank. At that moment I really wished my name was Ramesh or Rajesh. But there was nothing I could do.
“Yousuf”, I said.
The owner froze as if he had received an electric shock! He blurted out, “What did you say?!”
“I said ‘Yousuf’, sir!” I knew that this house too was a gone case.
“You’re Muslim!” He asked in disbelief.
“Yes, sir. But there won’t be any trouble. I leave for work early every morning and she is doing her M.Phil in Telugu….” I was mentally searching for more things to say even as I felt that whatever I said was not going to satisfy the landlord. I felt that there was nothing I could say that would please him.
“I thought you were “our people” going by the Telugu you spoke. I’m sorry but we can’t rent out the house to Muslims” he said as he tried to return the money he had taken.
Shaheen pleaded, “Sir, We really like your house. We are really tired with the all the searching. We won’t trouble you in the least bit. We are both educated, sir. And we will keep the house very neat.”
“I am sorry. My family will not agree.”
I said, “Sir, why don’t you consult them once. Please tell them about us. Please ask them to speak to my wife.”
The owner gave me a strange look.
“Sir, please!” I pleaded.
“Ok. Let me see.” He went inside.
I sighed. I was hoping they’d agree. We couldn’t hear the conversations inside. “No raised voices, maybe his wife doesn’t mind.” I whispered to Shaheen.
The owner stepped out.
“I’m sorry. They’re not willing”, he said as he handed back the advance. And without looking back even once, he retreated inside.
A thorn pierced our hearts once again.
***
I slipped the money back into my pocket and we began our search all over again. We roamed all the streets in the vicinity but didn’t find a single house that we liked. After a while, we thought maybe only Muslims would rent out houses to us Muslims. So, we started off in the direction of a Muslims locality. I recalled what my friend, Shankar said about Chintalbasti. He said that you could find people of all castes and religions there. Moreover, they were all just ordinary people, what you could call the “masses”. Not only Muslims but Christians, and even Jains. People who migrated to Hyderabad from all over the country seemed to be living there. He said that you could see a large number of Nepalis too.  Chintalbasti also had a large  vegetable market and the general weekly market was on Sundays. So everything was easily available and the bazaar would be bustling with people, mostly from the working class, walking around to buy their daily food and other necessities. All this made Chintalbasti very convenient and an attractive proposition to us.
Immersed in these thoughts, we reached the Muslim neighbourhood in no time. The houses were narrow and small. Poverty announced itself from every corner. Most of the front doors were closed. A few purdahs appeared here and there. A newly built house carried a TO LET board. Our spirits rose. We rang the doorbell. A sweet voice called out, “Who’s that?”
“We saw the ‘To Let’ Board”
“Please wait for a few minutes”
“Ok, thanks”
After a few minutes, the owner emerged out of the house, adjusting his lungi. He threw a surprised glance at us.
He looked at me and asked, “What do you do?”
“I am a journalist and she is studying in the university. It’s just the two of us”
“Are you from Andhra?, he queried.
“No”, I replied, “Why do you ask?”
He gave Shaheen an irritated look, “You don’t wear the purdah!?”
“No” said Shaheen in a neutral tone.
“Why?” he asked.
Shaheen was nonchalant. “Just like that”.
He leaned against the wall and said in an insulting tone, “We won’t rent out our house to people like you!”
I was tempted to retort in the same tone but I controlled myself with some difficulty. Shaheen was bursting with rage and was about to say something when I pressed her hand to restrain her. He continued to stare at us insolently. We had a strong desire to burn that look. Suppressing our anger and anguish, we stepped out on to the road.
“Its no use. Muslims will not rent us a house. We have to search in the non-Muslim areas. You seem really tired. Go back to the room. I’ll search some more,” I said to Shaheen.
I set out in another direction. I was reminded of an incident similar to what just happened.
Ibrahim was my batch-mate at school and a distant relative too. He had come once to visit us in our room. We were living in Saidabad then. As we were talking over dinner that night, he mentioned that a portion was  available for rent in his mother-in-law’s house in Pisalbanda. I immediately asked him to inquire whether we could rent the place. We were shocked to hear his instant response, “My in-laws will not allow people who don’t wear the burqa or the purdah.” I was even more pained when I recalled this incident.
***
I came to the second main street and entered the first lane. On one side were houses with two and three floors and on the other side were houses with just the ground floor. Those were clearly not houses meant for renting out. So, I began walking looking up on the side of the storied buildings. I was excited when I saw a “To Let” board hanging from the second floor of the fourth house in that row. I paused near the front gate and looked around. I opened the gate and went inside and rang the bell near the staircase. I walked out again and waited looking up at the second floor. A woman emerged from the first floor balcony. She asked me, “What do you want, son?” “It’s about the portion to rent, madam” I said nodding in the direction of the sign board.
“Are you vegetarian or non-vegetarian” she asked.
I was shocked by this question. I was never confronted with such a straightforward question before. For a few moments, I didn’t know how to respond to this. Of course, I couldn’t lie. I sighed to myself, “We are such truthful beings!”
“Non-vegetarians, Madam” I said
“Sorry”. Not only did she shoot back the reply instantly but also disappeared inside right away.
I felt ashamed with myself…or did I feel ashamed of the world? I looked around. Thankfully, there was no one around. I moved forward, wearily.
What did she mean exactly? That they won’t rent out the house to Muslims? No, that was not it. They wont rent it out to anybody who was non-vegetarian. So, who could she be? Who are the people who are purely vegetarian? They would be so few, isn’t it? So, are these people among the few? And who are non-vegetarians? Think about it—Muslims? Completely non-vegetarian. Christians? Yes, perhaps. Dalits, backward castes? Yes, all of them are non-vegetarian. So, who does that leave out? The Brahmins and the Vaishyas! So, these people must belong to one of these communities! So, that means they will rent out the house only to people from their own castes. Oh, how clever these people are! You can learn so much from just one single question. And in one shot you can eliminate so many people! Remarkable!
Meanwhile, I saw another “To Let” board nearby. I walked towards it full of hope. There was something else written beneath the words “To Let”. I moved closer wondering what it was. “ONLY VEGETARIANS”. Oh, my God! This was direct speech! There was no need to ask for any more information. The board simply said, “Get Out!”
This lane was of no use. I moved on to the next lane.
***
After more searching, I left the lane to move into a cluster of houses. There were many houses but none carried any boards. I spotted an old woman sitting on the verandah of a house chewing betelnut. I approached her and asked, “Grandma, are there any houses here for rent?”
“That house there, son! That has a portion to rent”, she said pointing out a house to me. Her words were soothing to my ears.
I went to the house and knocked on the door. There was a small gate on the side and I could see part of the house. I waited for sometime and knocked again. There was a hand pump in one corner of the house. A girl stood pumping water into a plastic pot. She was staring at me. I adjusted my hair and looked a little impatiently at the door. I was about to knock on the door once again when the door flew open as if by magic. A stout, fair skinned woman stood in the open doorway and she looked at me with a question in her face.
“Madam, I heard there were rooms for rent.”
“Yes, there are. Are you a bachelor?” she asked.
“No, I’m married. Just the two of us.”
“You work somewhere?!”
“Come in through the side gate.” She said. And without another word closed the door on my face.
Thank goodness! She seemed to have some faith in me. I hope the rooms are good. As soon as I opened the gate and went inside, she led me up some stairs. I followed her.
“Where are you living now?”
“Erramanzil, Balapur Ma’am”, I replied.
She unlocked the door and stepped aside. “Take a look”, she said. It was just one single room. There was no washbasin/sink either. I asked her about that. She pointed to a small drain hole in one corner of the room. There was a pipe that ran downstairs. She said we should wash there. There was a bathroom and a latrine adjoining the room. That seemed all right, I thought. But I was doubtful, so I asked, “Are these just for us?”
“No. There are two families living on the other side. These are for common use.”
So, we’ll have those people coming near our door every time they needed to use the bathroom or latrine. This wasn’t going to be easy. But what to do?! It was already the 30th of the month and we had to vacate the following day.
“Alright. Ok, madam. How much is the rent?”
“Fifteen hundred” she said.
I waited for her to say more. She didn’t ask for a two months’ advance. What luck! I was really pleased. I thought to myself that even if it wasn’t all that convenient, we ought to adjust and manage somehow in this house.
“Can we move in tomorrow?”
Suddenly, she asked, “What caste are you?”
My heart sank. What does this mean? How does it matter who we were! I wanted to scream that we were just human beings. But she wasn’t going to understand all this. And anyway, no Brahmins or Reddys were going to come to her house. But there would be no hesitation in declaring that one was a Reddy but why was it so difficult to say you were a Muslim? Maybe it would be as difficult to say that you were Mala, madiga or a washerman.
“We are Muslims, ma’am. My wife did her M.A in Telugu. We won’t be any trouble at all”…I was going to say more…when she dropped another bombshell…
“Do you eat beef?
How was I to answer this question? If I said yes, there was no way she would rent the house to us. What were we to do?  The last time I was asked this question, I had shaken my head saying ‘no’ because we badly needed the place and had nowhere to go. A month later, the landlord caught me buying beef at a meat shop. Well, what can we do, that’s the cheapest meat. They abused us really badly that day. They asked us to vacate the house instantly! We were shamed in front of the entire neighbourhood. The owners were golla people, a cattle-rearing community. One of them almost beat us up. We left immediately and took up another house even if we had to pay more rent.
And now, here was the question again! I sighed, it was difficult to live in this world. What did it matter what we ate! What was I to do?
“Ma’am, we eat beef once in a while. We won’t eat it if you don’t want us to. We really need the house. We’ve been searching since morning.” I said in a pitiful tone.
“We won’t rent the house to those who eat beef,” she said as she locked the room. I simply stood there not knowing what to say. I had already stooped before her and said that we wouldn’t eat beef if they didn’t like it. What more could I do! I felt like shouting out to her, “The whole world eats cow’s meat.”
But she didn’t even glance at me. She walked downstairs wordlessly and I had to follow her.
Ok, so this entire neighbourhood was going to be useless to me. The girl I had seen earlier was now pumping the water violently. I felt her violence was directed at me.
***
I came on to the road. I saw the lane leading to the other side of the road. I went there. A two-storied building with a To Let board! I rushed to the gate and went inside. There was a staircase on one side and a woman was coming down just then. She looked at me enquiringly. There’s a board for renting a house”, I said. “Go on in and ask the owner. He’s there”. She said as she was leaving. I went up and saw a man who was very big-built and seemed to be educated.
“Sir, the house for rent..”
“How many of you?”
“We are a couple; just the two of us”.
“The rent is two thousand and two hundred and it includes the electricity and water bill”, he said as he unlocked the house to show it to me. It was a big room and a kitchen. The place had an attached bathroom and was really nice. But the rent was too high.
“Sir, can you reduce the rent please. My wife is still studying…”
“Well, you won’t get such a house for less than Rs. 2500 in this area. And I am not even asking you for an advance! Anyone else will ask for two months’ advance.”
“You’re right, sir. But it’s hard to manage with my salary alone. Please make it 1800. We will increase the rent after some time.
“That’s not possible”, he said pausing to think a little. “Very well. Give me 2000. You say your wife is still a student. Let’s settle it at that. …I can’t make it any less…you won’t find anything cheaper.”
I began thinking, “The house was good and the owner seemed like a nice person. What should I do? 2000 was a lot of money. Will we be able to manage? It was going to be tough. But we have no choice; we are running out of time.
“Ok, sir. I only have 1500 at the moment. Please take this. I will give you 500 in a couple of days.”
“All right. When will you move in?” He asked as he took the money and counted it.
I was overjoyed to hear this question. “Tomorrow, sir.”
He said, “I like educated people. Moreover, you say that it’s just the two of you. Keep the house clean. That’s all I want.” He didn’t ask me anything else. He seemed like a prophet who had descended just for me.
He hadn’t asked which caste I belonged to! Which religion! What I ate! Such a good person! Are there such good people in this world?…But I should tell him that we are Muslims. What if even he says no, once I tell him this? I had no energy left to begin the search all over again. But it wasn’t proper to not tell him this. Lets see….
“Sir…My wife speaks mostly in Telugu, sir. She did her M.A in Telugu. I work as a journalist in a Telugu newspaper, sir. We are…Muslims, sir. I hope that’s ok, I said hesitatingly.
“You’re Muslim! You don’t seem like that. You speak such good Telugu” he asked in surprise.
I stood with a forced smile on my face. What was so great about knowing Telugu when we lived in a Telugu state? And is the Telugu language their sole property? Does Urdu belong just to Muslims? Certainly not.
The old man patted my shoulder and left.
***
Even after a whole week, the mystery of the three questions that the owner didn’t ask me continued to haunt me.
The servant maid who worked in the neighbouring portion said she would work for us too. Shaheen agreed to employ her after listening to her story. It was the first time we had a servant in the house. Washing the vessels and clothes and sweeping and mopping the floor, these were her duties. 200 for all this. Even though it was a meager wage, it was still a burden for us.
One day, as she chatted with Shaheen while working, she mentioned the landlord.
“Narsamma, what people are they?” I asked.
“Arijans” she said.
The mystery was now clearing up. I sank into a chair.
For the Brahmins, all non-vegetarians were untouchable people. For the Sudras, those who ate beef were untouchable. For Muslims all those who didn’t eat halal meat were untouchable. Those who didn’t wear the purdah were untouchable. SO who was left? Only the ‘arijans’ in Narsamma’s words, that is the dalits. But who was untouchable for the dalits? No one! There were no untouchables for the dalits. This meant that only dalits were real human beings. The others were the real untouchables!
I closed my eyes. I could see the Madigas in my village beating the drums and singing—‘flinching not at the whiplash, missing not a step in the tiger dance’! Yes, everybody else was untouchable except the dalits. Except the Madigas, in particular.

–Translated by Uma Bhrugubanda

Monday 10 February, 2014

వెంటాడే' కథలు 'ఏక్ కహానీ కె తీన్ రంగ్'

నా కొత్త కథల పుస్తకం పై ప్రముఖ కథకుడు లెనిన్ ధనిశెట్టి మొన్నటి ఆంధ్రజ్యోతి సండే లో రాసిన రివ్యూ:
'వెంటాడే' కథలు
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తెలంగాణ తెలుగు కథ వ్యక్తీకరణలోనూ, ప్రయోగాత్మకతలోనూ కొత్త పుంతలు తొక్కుతూ వికసిస్తూందనేందుకు మంచి ఉదాహరణ స్కైబాబ రాసిన 'ఏక్ కహానీ కె తీన్ రంగ్' కథలు. ముగ్గురు ముస్లిం స్త్రీలకు, పురుషులకు మధ్య సెల్‌ఫోన్‌లో జరిగిన సంభాషణలకు 'వహీదా', 'జమీలా', 'మౌసమీ' అనే మూడు కథా రూపాలనిచ్చాడు రచయిత.
పాఠకులు ఊహించని మలుపులతో సాగే ఈ కథలు సమకాలీన మధ్యతరగతి ముస్లిం స్త్రీల మనస్తత్వంలోని పరాధీనత, నిస్పృహ, వేదన వంటి విభిన్న కోణాలను మనకు పరిచయం చేస్తాయి. అత్యంత పురాతనమైన, అదే సమయంలో సమకాలీనమైన ఈ వాస్తవికతను రచయిత వివరించిన తీరు మూలంగా ఈ కథలు పాఠకుల్ని తమతో పాటు లాక్కెళ్ళి సంఘటనల్ని దృశ్యమానం చేస్తాయి. చదివిన చాలాకాలం వరకూ వారిని వెంటాడేలా చేస్తాయి. ఈ కథలలోని స్త్రీ పాత్రలన్నీ సనాతన ఆచారాలకు, ఆధునికతకు మధ్య నలిగి పోతుంటాయి. సంప్రదాయాల సంకెళ్ళ నుంచి బయటికొచ్చి స్వేచ్ఛా ప్రపంచంలో విహరించాలని తపిస్తుంటాయి. ఆ మహిళల అంతరంగాల్లోని ఈ 'తపన'ను, ఘర్షణను చాలా నేర్పుగా వ్యక్తీకరిస్తాడు రచయిత. వారి అంతరంగ చిత్రణకు సమాంతరంగా ముస్లిం పురుషుడి అపరాధ భావన కూడా వీటిలో చాలా సహజంగా వ్యక్తమైంది.
సెల్‌ఫోన్ కథలని వీటికో టాగ్‌లైన్ తగిలించడం అనవసరం. ఎందుకంటే ఈ కథల్లో సెల్‌ఫోన్ ఒక మాధ్యమం, పరికరం మాత్రమే. అందరికీ తెలిసిన జీవితాలనే ఉత్కంఠ భరితంగా రాయడం వల్ల ఈ కథలకు చాలా రీడబిలిటీ వచ్చింది. రొటీన్ కథలతో చిక్కి శల్యమవుతున్న తెలుగు పాఠకులు, తెలుగు సాహిత్యంలో కొత్తదనం లేదని వాపోయేవారు తప్పక చదవాల్సిన కథలివి. వాడ్రేవు చినవీరభద్రుడు రాసిన ముందు మాట చాలా ఆలోచనాత్మకంగా ఉంది.
- డి. లెనిన్
ఏక్ కహానీ కె తీన్ రంగ్, స్కై బాబ
పేజీలు : 40, వెల : రూ. 30
ప్రతులకు : ప్రముఖ పుస్తక కేంద్రాలు,
www.kinige.com
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